Saturday 3 November 2012

क्यों करते हैं नमस्कार !



क्यों करते हैं नमस्कार !
यह नमस्कार विभिन्न धर्मो और संप्रदायों में भिन्न-भिन्न नामों से प्रचलित है। कहीं लोग "राम-राम", "जय श्रीराम", "जय जयराम", "सीताराम" करते हैं तो कहीं "नमस्ते", "नमस्कार", "जय माता की", "जय माँ", "राधे-राधे", "जय गोविन्द", "बम-बम भोले", "जयशंकर" बोलते मिलते हैं। अन्य धर्मो में "सलाम अलेकुम", "सलाम", "अल्ला खैर करे", "जयजिन", "जय महावीर", "सत श्री अकाल", "भोले बाबा की जय" आदि संबोधनों से नमस्कार की एक सहज सी परंपरा का निर्वाह किया जाता है। धर्म या संप्रदाय कोई भी हो, नमस्कार तो किसी किसी रूप में होता ही है। नमस्कार का सहज सामान्य अर्थ होता है कि दो मिलने या बिछु़डने वाले व्यक्ति किसी परमसत्ता से जु़डे हैं और अपनी भेंट को परमसत्ता की कृपा मानते हैं अथवा अपनी स्वस्थता और प्रसन्नता की अभिव्यक्ति ईश्वर के नामोच्चाारण के माध्यम से करते हैं।

नमस्कार शब्द की व्याख्या करें तो पता चलता है कि नम:+कार, दो शब्दों से बना नमस्कार गूढ़ रहस्य को समाहित किए हुए है। नमस्कार का आशय हुआ कि हम संसार के कारक को सादर नमन करते हैं,इसी प्रकार नमस्ते का भी यही आशय होता है कि हम उस परमात्मा को नमस्कार करते हैं। कहीं-कहीं परंपरा स्वरूप हाथ मिलाकर, गले मिलकर या चुंबन देकर अभिवादन किया जाता है। ये सभी क्रियाएं नमस्कार का मौन (मूक) स्वरूप हैं कि दो व्यक्तियों के हाथ से हाथ, दिल से दिल, ह्वदय से ह्वदय और मुख से मुख मिलते हैं तो भी परमसत्ता की दो विभूतियों का एकाकार हो जाना ही नमस्कार की उच्चा श्रेणी बन जाता है। नमस्कार करने की इस विश्वव्यापी परंपरा के पीछे वैज्ञानिक कारण यही रहा है कि व्यक्ति निजत्व को त्यागकर सार्वभौम सत्ता को स्वीकार करता है, व्यष्टि से समष्टि में मिल जाता है, आत्मा से परमात्मा, अणु से परमाणु बन जाता है और इस प्रकार वह अपनी विराट सत्ता बना लेता है। उसका अहं समाप्त हो जाता है, नमस्कार करते ही उसमें विनम्रता, निर्मलता, सह्वदयता, मैत्री भाव और पारस्परिकता का भाव व्याप्त हो जाता है।

मनोवैज्ञानिक या वैज्ञानिक स्तर पर देखें तो सकारात्मक ऊर्जा का संचार दोनों नमस्कार करने वालों में हो जाता है। कहीं संयोग से एक व्यक्ति नकारात्मक मनोवृत्ति का शिकार हो तो उससे नमस्कार करने पर वह एकाएक उस नकारात्मक मनोवृत्ति से निकलकर सहज-सामान्य व्यवहार करने लगता है, यह इस बात का प्रमाण है कि नमस्कार में सकारात्मक ऊर्जा निहित रहती है। ऎसी बात केवल हमारे कह देने या लिख देने से प्रामाणिक नहीं हो जाती, अपितु पाठकगण स्वयं व्यावहारिक रूप में अमल करें और परिणाम देखें। हमारा अनुभव रहा है कि कई बार जब कोई व्यक्ति या देवता हम पर रूष्ट हों तो हम संकल्प द्वारा मन ही मन उन्हें नमस्कार या प्रणाम कर लें तो कुछ समय पश्चात् वही व्यक्ति या दैव हम पर स्वत: अनुकूल होकर कृपा बरसाने लगते हैं, यह शक्ति नमस्कार या प्रणाम में ही समाहित है।
नमस्कार अपने से छोटे-ब़डे समान सभी उम्र के लोगों से किया जा सकता है जबकि प्रणाम स्वयं से ब़डे एवं श्रद्धेय को किया जाता है, यह भी ध्यान देने योग्य है। चरण स्पर्श : भारत में चरण स्पर्श की अतिप्राचीन परंपरा है।

व्यक्ति स्वयं से आयु में या रिश्ते-नाते में ब़डे व्यक्ति के चरण स्पर्श करता है। ग्रामीण महिलाएं अपने से ब़डी महिलाओं के चरण स्पर्श कर उन पर हल्का दबाव (पदचापन) डालती हंै और जिस बुजुर्ग महिला के पद दबाये जा रहे होते हैं, वह निरंतर दुआएँ, आशीर्वाद, आशीष, सदवचन बोलती रहती हैं, जिससे चरण स्पर्श, पदचापन और आशीर्वचन का परस्पर लेन-देन हो जाता है। व्यक्ति के शरीर में 72 नाç़डयाँ होती हैं और एक सामान्य स्वस्थ मनुष्य का ह्वदय भी एक मिनट में 72 श्वास-प्रच्छ्वास करता है अर्थात् एक प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है। सेवा भी पूर्ण और आशीर्वाद भी पूर्ण। यह एक अनुभूत प्रयोग है कि कोई व्यक्ति कितना ही मलिन स्वभाव का हो, कितना ही दुश्चरित्र हो, कितना ही अपवित्र और दूषित विचारों का हो, यदि उसके भी चरण स्पर्श किए जाते हैं तो उसके मुख से आशीर्वाद, दुआ, सद्वचन ही निकलता है अथवा यदि वह ऎसा नहीं करता है तो अपने चरण स्पर्श के दौरान मौन रह जाता है, कुछ भी नहीं बोलता।

व्यक्ति का मौन हो जाना, उसकी अंतर्मुखता को दर्शाता है। अंतर्मन से सामान्यत: व्यक्ति सकारात्मक ही सोचता है, नकारात्मक नहीं। श्रीभगवत् गीता के दशम स्कंध में गोपियों की विरह वेदना का वर्णन करते हुए महर्षि व्यास लिखते हैं कि हजारो उपालंभ, उलहाने, व्यथाएँ, कुंठाएं, दु:खीमन से व्याकुल गोपियों के समक्ष जब श्रीकृष्ण शांत और विनम्र भाव से मुस्कराते हुए प्रकट होते हैं तो वे उन्हें देखकर सब उपालंभ, नाराजगी भूल जाती हैं और अवाक् सी ख़डी रहकर "मौन" हो जाती हंै, उनके हाव-भाव, अंग-प्रत्यंग सब स्थिर हो जाते हैं, केवल "मौन" व्याप्त हो जाता है। पुन: महर्षि व्यास लिखते हैं कि "गोपियों का मौन हो जाना ही उनका "मोक्ष" हो जाना है।"मौन में व्यक्ति महान् बन जाता है, कुछ देने का इच्छुक रहता है, अपने अहंकार को भस्मीभूत कर रहा होता है। इसलिए चरण स्पर्श, चरणवंदन, चरण स्तुति, चरण पूजा, चरण स्मृति कभी भी व्यर्थ नहीं जाते, इनके सुपरिणाम अवश्य मिलते हैं। जिसे हम चरण स्पर्श करके ब़डा बनाते हैं, वह ब़डा ही रहता है, छोटे विचार मन में नहीं ला सकता, चाहे आशीर्वाद बोलकर दे या मौन रह जाए।

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